गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

दिल सुलगता ही रहा


दिल सुलगता ही रहा
गीली लकड़ियों की तरह

आग लगती है नहीं
चिन्गारी भी मिटती नहीं

सँसार किस तरह दिखे
जब आँख खुलती है नहीं

धुँआ-धुँआ सा अन्दर है
धुँआ-धुँआ है हर कहीं

धुँए के पार दिखता नहीं
आसमाँ की तरफ़ तकते रहे

अपनी दीवारों में क़ैद हो
ख़ुद से गिला करते रहे

टकरा के लौटी है हवा
रास्ता कहाँ हमने रखा

फूलों की डाली कहाँ सजी
दिलवालों की दिवाली कहाँ मनी

हम गीली लकडियाँ लिए
अपना ज़हन सुलगाते रहे

अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे

धुँए का रुख , आसमान को
हवा की जरूरत हर कहीं

हवाओं का हिस्सा बन जाते गर
जश्न होता हर घड़ी और हर कहीं

7 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे

--क्या बात है, बहुत उम्दा.

विवेक ने कहा…

हर कोई इन शब्दों को पढ़कर समझेगा उसी की बात है...बस यही तो है अच्छी कविता.

Mohinder56 ने कहा…

बढिया लिखा है आपने.. कुछ उपमान सुन्दर बन पडे हैं

आग लगती है नहीं
चिन्गारी भी मिटती नहीं
अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे
हवाओं का हिस्सा बन जाते गर
जश्न होता हर घड़ी और हर कहीं

बहुत सही लिखा है आपने..अपने आप बांधे हुये बंधनों से आजाद हो कर ही हम कुछ नया पा सकते हैं

रंजना ने कहा…

वाह !! भावनाओ को बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति दी है आपने....

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति ...

रंजू भाटिया ने कहा…

हम गीली लकडियाँ लिए
अपना जहन सुलगाते रहे
अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे

बहुत सुंदर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति है

Deepak Tiruwa ने कहा…

हर दीवार में खिड़की एक गुंजाइश का नाम है , इसी से हवा के पर रास्ता देख पाते हैं ! naturica पर आपके लिए मुशायरा (साइबर) हाज़िर है।