मंगलवार, 5 मई 2009

क़दमों में ख़म माँगा


तकता था , सिसकता था
दुनिया ने कहाँ बाँधा ?

जुबाँ को शब्द नहीं थे
शब्दों ने है कुछ बाँचा

अरमानों और हकीकत को
कहाँ कहाँ जाँचा

तेरी उँगली पकड़ने को
तेरा ही साथ माँगा

सर रख के जो ये रोता
कब मिला कोई काँधा

ऊँची-नीची डगर पर
माली ने है कुछ राँधा

सपनों में मेरे आकर
क़दमों में है कुछ बाँधा

रुसवाइयों से डर कर
वीरानों ने समाँ बांधा

अच्छा है कोई नहीं जानता
उपहारों में है क्या बाँधा

उपहारों की गिनती कम है क्या
हौसलों में दम माँगा

अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा

11 टिप्‍पणियां:

Akhilesh Shukla ने कहा…

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Kulwant Happy ने कहा…

bahut achha laga

रंजू भाटिया ने कहा…

अच्छी लगी शुक्रिया .शारदा जी ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मन की भावनाओं को सुन्दर शब्दों में बाँधा है।
ऊँची-नीची धरती पर, माली ने कुछ राँधा है।

कविता पढ़ कर मन प्रफुल्लित हो गया।

Chandan Kumar Jha ने कहा…

बहुत हीं सुन्दर भावनात्मक रेखाये है यह.

surjit singh ने कहा…

Very deep and subtle thoughts:
..'हौसलों में दम माँगा
अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा ..'
An excellent blog.
God bless.

Prem Farukhabadi ने कहा…

sundar kavita ke liye badhaai.

निर्मला कपिला ने कहा…

sunder abhivyakti hai shubhkaamnayen

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

बेहतरीन भाव-रचना के लिये साधुवाद स्वीकारें

Nitish Raj ने कहा…

अच्छी पेशकश,काफी दिल से लिखा गए भाव।
साधुवाद। फिर लौटूंगा।

Science Bloggers Association ने कहा…

छोटी बहर में आप कमाल करते हैं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }