शुक्रवार, 25 मई 2012

लौट आते परिन्दे

क्या कहिए अब इस हालत में ,
अब कौन समझने वाला है

कश्ती है बीच समन्दर में
तूफाँ से पड़ा यूँ पाला है

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढ़ाला है

कह देतीं आँखें सब कुछ ही
जुबाँ पर बेशक इक ताला है

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

बाँधने से नहीं बँधता कोई
आशना क्या गड़बड़ झाला है

ज़ेहन में उग आते काँटे
ये रोग हमारा पाला है

घूम आते हैं अक्सर हम भी
वक्त की तलियों में छाला है

नजरें फेरे हम जाप रहे
बाँधें आसों की माला है

11 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

Bahut Sunder

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

नजरें फेरे हम जाप रहे
बाँधें आसों की माला है

वह! बहुत बढिया रचना है।बधाई।

Kailash Sharma ने कहा…

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढ़ाला है

....बहुत खूब! बेहतरीन प्रस्तुति...

kshama ने कहा…

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढ़ाला है

कह देतीं आँखें सब कुछ ही
जुबाँ पर बेशक इक ताला है
Kamaal kee panktiyan hain!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

अजय कुमार झा ने कहा…

हर पंक्ति बनी अर्थपूर्ण ,
आपने यूं शब्दों को ढाला है ,

बहुत बहुत शुभकामनाएं जी

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुंदर शारदा जी.........

कोमल एहसास......
अनु

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

रचना बेहतरीन है।
हर पंक्ति लाजवाब।

Onkar ने कहा…

sundar prastuti

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

devendra gautam ने कहा…

अच्छी रचना हुई है शारदा जी!..बधाई!