मंगलवार, 18 सितंबर 2012

जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं

अपने लिए तो ग़मों की रात ही जश्न बनी 
जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं 
इसीलिये सजदे में सर अब भी झुका रक्खा है 

गम की आदत है ये दिन रात भुला देता है 
हम नहीं आयेंगे इसके झाँसे में 
चराग दिल का यूँ भी जला रक्खा है 

नाम वाले भी कभी गुमनाम ही हुआ करते हैं 
ज़िन्दगी गुमनामी से भी बढ़ कर है 
ये गुमाँ खुद को पिला रक्खा है 

शबे-गम की क्यूँ सहर होती नहीं 
तारे गिनते गिनते रात भी कटे 
इस उम्मीद पर दिल को बहला रक्खा है

अपने लिए तो ग़मों की रात ही जश्न बनी
जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं
इसीलिये सजदे में सर अब भी झुका रक्खा है

10 टिप्‍पणियां:

अरुन अनन्त ने कहा…

बेहतरीन ग़ज़ल, सुन्दर पंक्तियाँ

दिगम्बर नासवा ने कहा…

शबे-गम की क्यूँ सहर होती नहीं
तारे गिनते गिनते रात भी कटे
इस उम्मीद पर दिल को बहला रक्खा है ...

शबे गम की रात लंबी जरूर होती है पर कट जाती है ... दिल में उम्मीद रखनी जरूरी है ...

रचना दीक्षित ने कहा…

गम की आदत है ये दिन रात भुला देता है
हम नहीं आयेंगे इसके झाँसे में
चराग दिल का यूँ भी जला रक्खा है

बहुत खूब.

Pallavi saxena ने कहा…

वाह क्या खूब लिखा है आपने जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं सच तो है फिर वो जश्न चाहे दर्द दिल का ही क्यूँ न हो।

devendra gautam ने कहा…

बहुत खूब!

Rohit Singh ने कहा…

अच्छी लाइनंे

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

शब है तो सहर होगी
खुशियों की लहर होगी.
गम के हजार मारे
सबकी ही नज़र होगी.

खूबसूरत एहसास.

मनोज कुमार ने कहा…

शबे-गम की क्यूँ सहर होती नहीं
तारे गिनते गिनते रात भी कटे
इस उम्मीद पर दिल को बहला रक्खा है
दिल को बहलाने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है ..

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक सृजन, आभार.

समय चक्र ने कहा…

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