मंगलवार, 22 जनवरी 2013

रातों की दिया-बाती

जलता हुआ सहरा है , चेहरे पे उदासी है 
आँखों में बदहवासी , जलने की बू आती है 

घड़ी दो घड़ी को , गुलशन का करार देखो 
खिजाँ की कोई रुत भी , पसरी है कि  खाती है 

साबुत न बचा न कोई , चक्की के दो पाटों में 
घर से निकले तो ये दुनिया है , अपना समझे तो ये थाती है 

दिल लगी की बहुत बातें , कह दें तो रुसवाई है 
न बोलें तो बोझ दिल पे , धड़कन की ये पाती है 

ढलता हुआ सूरज है , आँखों में बसी किरणे 
छीने न कोई हमसे , रातों की दिया-बाती हैं 

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति!
    वरिष्ठ गणतन्त्रदिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और नेता जी सुभाष को नमन!

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  2. प्रभावशाली ,
    जारी रहें।

    शुभकामना !!!

    आर्यावर्त
    आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।

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  3. आपकी पोस्ट की चर्चा 24- 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।

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  4. सशक्त रचना.

    ६४ वें गणतंत्र दिवस पर बधाइयाँ और शुभकामनायें.

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  5. 'साबुत न बचा कोई चक्की के दो पाटों में ...''....
    वाह!क्या कहने!यह शेर खास लगा .

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. ढलता हुआ सूरज है, आँखों में बसी किरणे
    छीने न कोई हमसे, रातों की दिया-बाती----

    बहुत उम्दा ख्याल है

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  8. वाह ! बेहद खूबसूरती से कोमल भावनाओं को संजोया इस प्रस्तुति में आपने ...सुन्दर ग़ज़ल.

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं