शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

आजाओ मेरे प्रभु जी (गुरु जी )

उतरो मेरे मन में , प्रभु जी
उजली सी किरणें लेकर
तकती हैं मेरी आँखें
भूली हैं सारी राहें
अन्तस में है अँधियारा
दिखता कोई किनारा
जन्मों से बहका तन मन
जलने को है इक उपवन
जाओ मेरे प्रभु जी
ठंडी सी हवाएं लेकर
तेरी ठण्डक देती बाहें
राहत की सारी दवाएँ
महकेगा इक गलियारा
खिल जायेगा इक उजियारा
जिस ओर भी तुम लेजाओ
उंगली अपनी पकड़ाओ

3 टिप्‍पणियां:

"अर्श" ने कहा…

शारदा जी नमस्कार,
आप मेरे ब्लॉग पे आई इसका तहे दिल से शुक्रिया और बधाई,आपका ब्लॉग पढ़ा बहोत ही सरल भाव से कविता लिखी है आपने ,कृपया आप अन्यथा ना ले मगर आपकी ग़ज़ल पढ़ी है मैंने हलाकि मैं भी अभी सिखने की राह पे हूँ .. मुझे कही कही पे काफिये की गडबडी लगी कृपया इसे सुधार्लें ....अपनी पचासवीं ग़ज़ल ली पोस्ट पे आपका स्नेह और आशीर्वाद चाहूँगा .....

आभार
अर्श

महेंद्र मिश्र.... ने कहा…

आपने सरल भाव से कविता लिखी है . शुक्रिया और बधाई

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बेहतरीन लेखन...वाह...
नीरज