गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मेरी बात और है

तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है

चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है

जिन्दगी यूँ भी गुजर जाती है
वीरानों से भी दोस्ती की है

हाले-दिल किस को सुनाने लगे
सजा में क्या कोताही की है

सह तो लेते हैं खुदा का करम
आदमी का करम , खुदा की मर्जी ही है

तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है

11 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

सुन्दर ग़ज़ल....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है ...

वाह ... चांदनी रात का भरम रखने को दिल जला गिया ... बहुत खूब लिखा है ...

shama ने कहा…

चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है
Behad sundar panktiyan!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आभार!

kshama ने कहा…

Bahut khoob Shardaji!

कविता रावत ने कहा…

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है
जिन्दगी यूँ भी गुजर जाती है
वीरानों से भी दोस्ती की है
....वाह! बहुत सुंदर प्रस्तुति!

नीरज गोस्वामी ने कहा…

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है

बेहतरीन रचना...बधाई स्वीकारें .

नीरज

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर

रचना दीक्षित ने कहा…

तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है

क्या बात है. दिल से निकली रचना. बधाई.

सोमनाथ चतुर्वेदी ने कहा…

चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है

lajawab...

Monika Jain ने कहा…

wah bahut khoob