शनिवार, 15 नवंबर 2014

वक़्त की नफ़ासत

है अदब भी फासले का दूसरा नाम 
होती है यूँ भी इबादत कभी-कभी 

जंजीरों की तरह रोक लेतीं हैं जो 
दीवारें भी बोलतीं हैं राहों की इबारत कभी-कभी 

चुप हो के भले बैठे दिखते हैं जो 
करते हैं वो भी बगावत कभी-कभी 

है आसाँ नहीं हवाओं का रुख मोड़ना 
करता है ज़मीर ही खिलाफत कभी-कभी 

लिखता है भला कौन ज़ुदाई के नगमे
चुभती है ये भी हरारत कभी-कभी 

चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे 
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी 

3 टिप्‍पणियां:

nayee dunia ने कहा…


चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी .....bahut badhiya

कविता रावत ने कहा…

चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी
..सच जब अपने पर पड़ती है तब ज्यादा समझ आती है ...
बहुत बढ़िया ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'