मंगलवार, 17 मार्च 2015

होली में मन रँग बैठी है

व्यस्तता की वजह से होली पर लिखा गीत होली के मौके पर पोस्ट नहीं कर पाई  ....

आँखें मलती उठ बैठी है , होली में मन रँग बैठी है 
एक उजास है अँगना में , चूनर अपनी रँग बैठी है 

सरक-सरक जाये है चुनरी ,गोरी खुद हल्कान हुई है 
दूर खड़े हैं कान्हा तब से , राधा जैसे मगन बैठी है 

हाथ गुलाल रँग पिचकारी , गुब्बारे भी दे-दे मारे 
बच्चे-बड़े हँसें किलकारी भर-भर,उम्र तो अल्हड़ बन बैठी है 

ले आया फागुन बौराई , मन को मिले ठाँव कोई न 
आँगन-आँगन रँग बरसे , उत्सव से भी ठन बैठी है 

भाँग-धतूरा नशा नहीं है , गले मिले बिन मजा नहीं है 
सिर चढ़ कर बोले ये जादू , होली-होली मगन बैठी है 

मीठी-मीठी तकरारों में , लाग-लपेट की मनुहारों में 
मौज-मस्ती की आड़ में देखो , रिश्तों की गरिमा बैठी है 



3 टिप्‍पणियां:

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर रचना.
नई पोस्ट : बीत गए दिन

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19 - 03 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1922 में दिया जाएगा
धन्यवाद

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

रचना में होली के सभी रंग सजीव हो उठे हैं।
शुभकामनाएं !