शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

कुछ भी नहीं पूछा है उसने

परछाइयों से लड़ बैठी हूँ
अब कोई मुझे बुलाये न

कुछ भी नहीं पूछा है तुमने
ये कोई मुझे बताये न

दरिया तो पार किया मैंने
अब साहिल पे अटकाये न

पतवारें तो होती बहाना हैं
दम अपना कोई भुलाये न

नहीं पछाड़ा मुझको दरिया ने
किनारे से कोई लड़ाये न

हाय कोई ढाल बनी होती
पानी पर कोई चलाये न

कुछ भी नहीं पूछा है उसने
परछाईँ सा कोई डराये न

बुधवार, 11 नवंबर 2009

हर हिस्से की धूप तय है

मौसम भी क्या शय है
हर हिस्से की धूप तय है

करता है गुलशन जो बेमानी
पकड़ी जाती है नादानी

जीवन की ये कैसी लय है
छाया की प्यासी मय है

अजीब हादसा है बेनामी
मुँह छिपाए है गुमनामी

सरक जाने का भय है
धूप-छाया की कच्ची वय है

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

पीड़ा कब पढ़ आई हिज्जे

अपनी पीड़ा को बाँधोगे ,सँगीत ,बहर और काफिये में
सैलाब कहाँ बहता है , किनारे समेट के सिम्तों में

बाँधो बाँधो टुकडों में , हवा और आँधियों को
कर लो तुम क़ैद गुबार, धुँए और लपटों को


सरहद बाँधे इन्सानों को , मजहब बाँधे भगवानों को
इश्क की कोई जात नहीं होती , कब बंधता है ये जुबानों में


कभी सजता है बहरूपिये सा , गीतों गजलों की महफ़िल में
भारी पड़ती कायनात पे वो , जो हूक सी उठती है दिल से


पीड़ा कब पढ़ आई हिज्जे , गीत , बहर और काफिये के
सदियों ने पाला है इसको , चढ़ बैठी जो ये हाशिये पे