कोई शुबहा कहीं नहीं है
रात हुई और तारे निकले
अरमाँ की गलियों में यूँ ही
हम अपना दिल हारे निकले
कोई मंजिल कहीं नहीं है
टूट के बिखरे सितारे निकले
बाँध सके जो हमको देखो
झूठे सारे सहारे निकले
अपनी चादर में फूलों के
काँटों से ही धारे निकले
डूबें कैसे बीच भँवर में
दूर बहुत ही किनारे निकले
उँगली पकड़ेंगे वो अपनी
ऐतबार के मारे निकले
पराई धड़कन , पराई साँसें
क्या-क्या पास हमारे निकले
ग़ज़ल 437 [11-G] : यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
2 दिन पहले