यूँ तो हालात ने हमसे दिल्लगी की है
जीने का शउर सिखाना था , कुछ इस अन्दाज़ में गुफ्तगू की है
कोई एक तो होता हमारा गम -गुसार
हाय नायाब सी शै की जुस्तज़ू की है
अपने जख्मों की परवाह किसे
उसकी आँख में आँसू , फिर कोई रफू की है
दुनिया नहीं होती सिर्फ बुरी ही बुरी
उसी दुनिया से किसी और ही दुनिया की आरज़ू की है
हमको मालूम नहीं राग क्या है रागिनी क्या है
काले सफ़ेद सुर ज़िन्दगी के , ताल देने को दू-ब-दू की है
यूँ तो हालात ने हमसे दिल्लगी की है
जीने का शउर सिखाना था , कुछ इस अन्दाज़ में गुफ्तगू की है
ग़ज़ल 427[ 76 फ़] ; नशा दौलत का है उसको--
7 घंटे पहले