रविवार, 30 सितंबर 2018

इन्तिहाँ कर ले

उठ रे मन कोई सुबह कर ले 
आतिशे-ग़म की इन्तिहाँ कर ले 
यूँ ही नहीं चल सकेगा आगे 
माथे में कोई उजाला भर ले 

राहें अँधेरी , दिन भी अँधेरे 
कैसे निभेंगे सुब्हो-शाम के फेरे 
कोई न कोई तो भुगतान होगा 
तू भी गम से किनारा कर ले 

जां पे रखेगा जो पत्थर कोई 
मुर्दा नहीं है हलचल तो होगी 
नदिया के पार किनारा कर ले 
तिनके का ही सहारा कर ले