बुधवार, 4 अगस्त 2010

ख्याल जिन्दा है

बुत बने बैठे हैं मगर जिन्दा हैं
झाँक के देखा है अन्दर कोई शर्मिन्दा है

भलमन-साहत को नासमझी समझ लेते हैं लोग
भटकना मुश्किल है जमीर जिन्दा है

उठ गया कारवाँ साथ हसरतों के ही
सो गया सब कुछ गुबार जिन्दा है

घड़ी की तरह चलती हैं धडकनें
रुकी नहीं हैं सामान जिन्दा है

मन्दिर-मस्जिद भी गए , वो बोलता ही नहीं
ज़माने में मगर उसका करम जिन्दा है

कहाँ से लाऊँ बुतों की बस्ती में खुदा
तलाश जारी है , ख्याल जिन्दा है