मंगलवार, 29 सितंबर 2009

दिन है बड़ा मटमैला सा

अब न शाम-सहर
दिन है बड़ा मटमैला सा
उड़ गया चैन मेरे हाथों से
नीँद की ही तरह
अब न शाम- सहर

रातें जो न हों तारों भरी
हम जुगनू लेकर चल लेते
छल करता है सूरज जब-जब
छाया का टुकड़ा दे दे कर
दिन का है कहो , ये कौन पहर
अब न शाम- सहर

दिन कब होते सब एक से हैं
छाया भी यहाँ बेमानी सी लगे
अपना ही आप कहानी सी लगे
किस से मिल कर , ढाया ये कहर
अब न शाम- सहर

रोया था उस दिन आसमाँ भी
आया था जब वो साथ मेरे
पसीजा था तो मेरी ही तरह
बिखरा हुआ , आया था नजर
अब न शाम-सहर