गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

दिल सुलगता ही रहा


दिल सुलगता ही रहा
गीली लकड़ियों की तरह

आग लगती है नहीं
चिन्गारी भी मिटती नहीं

सँसार किस तरह दिखे
जब आँख खुलती है नहीं

धुँआ-धुँआ सा अन्दर है
धुँआ-धुँआ है हर कहीं

धुँए के पार दिखता नहीं
आसमाँ की तरफ़ तकते रहे

अपनी दीवारों में क़ैद हो
ख़ुद से गिला करते रहे

टकरा के लौटी है हवा
रास्ता कहाँ हमने रखा

फूलों की डाली कहाँ सजी
दिलवालों की दिवाली कहाँ मनी

हम गीली लकडियाँ लिए
अपना ज़हन सुलगाते रहे

अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे

धुँए का रुख , आसमान को
हवा की जरूरत हर कहीं

हवाओं का हिस्सा बन जाते गर
जश्न होता हर घड़ी और हर कहीं