रविवार, 25 अक्तूबर 2009

जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं

जज्बात हमसे लिखवाते हैं
है कोई न कोई तो बात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


अपने हाथों में जिन्दगी जितनी बच जाये
फिसले जाते हैं दिन रात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


अपना चेहरा ही नहीं जाता है पहचाना
हुई ख़ुद से यूँ मुलाकात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


रोये गाये भारी मन को हल्का करने
उतरे लफ्जों में हैं हालात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


मेरी ही आवाज में सुनने के लिए
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