बूँद-बूँद रिस गये हम , उम्र के प्याले से
रीते रहे हम , ज़िन्दगी के निवाले से
तुरपनें , पैबंद, बखिए , सीवनें
सारी क़वायदें ज़िन्दगी निभाने में
आँखों के सामने पतझड़ जो उतरें
सीने के मौसम कैसे फिर निखरें
हमने तो अक्सर तिनके की छाँव में
खुद को सम्भाला , धूप के गाँव में
अपनी-अपनी धरती है , अपना-अपना अम्बर है
एक ख़ुदा बाहर तो एक पैग़म्बर अन्दर है