मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

हिसाब काँटों का चुकाने

छिड़ी जो बात , जख्म छेड़ गया कोई
यादों की हवाओं का रुख मोड़ गया कोई

वक्त ने अपना काम किया बखूबी तो मगर
गुजरे ज़माने की वही बात , सिरहाने छोड़ गया कोई

बिखर के सिमटे तो खुद से भी नजर चुराते ही रहे
बचे-खुचे को फिर पलट कर , उसी मुहाने छोड़ गया कोई

पीले पन्नों में गुलाबों के बहाने आ कर
हिसाब काँटों का चुकाने , सताने छोड़ गया कोई

मन के पानी पर अक्स मिटते ही नहीं
मार के कंकड़ लहरों का , शोर सुनाने छोड़ गया कोई


मैं जानती हूँ कि ये निराशा है , मगर जब गम तरन्नुम में गाने लगे तो मायूसी कहाँ बची ? यानि गम स्वीकार करते ही हम सहज होने लगते हैं , और हलचल भी तो जीवन का ही लक्षण है ।


तब न थी हाथों में कलम
जब था जहाँ अपना भी गुलशन
इसी वीराने ने थमाई है कलम

जाने हम क्या क्या लिख दें
शान में तेरी ऐ जिन्दगी
तुम लौट के आओ तो सही ...

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सोच के दीप जला कर देखो


दूर गगन में जा कर देखो

सोच के दीप जला कर देखो


चन्दा तो उतना ही हँसी है

जितने पँख लगा कर देखो


उडती पतंगें मौजों सी ही

गीत सुहाने गा कर देखो


जीवन आनी जानी शय है

कोई तो अलख जगा कर देखो


रुत बदले , मिजाज भी बदले

वक्त से ताल मिला कर देखो


मरघट सी सूनी ख़ामोशी

क़ैद से बाहर कर देखो


बच्चे बूढ़े जवाँ हो जाते

आस का फूल खिला कर देखो


घर भर को रौशन कर देता

एक दिया ही जला कर देखो