शुक्रवार, 6 मई 2011

रुके रुके से दिन



रुके रुके से दिन परछाइयाँ चलती हुईं
धू-धू कर जल उठीं अमराइयाँ कितनी

स्कैच बना कर खुदा रँग भरना भूल गया
काले सफ़ेद वर्कों में रुसवाइयाँ कितनी

बहला रहे हैं खुद को आँकड़ों के खेल में
जिन्दगी की दौड़ में गहराइयाँ कितनी

सँकरे रास्ते भी देते हैं पता मंजिल का
चल चल कर बनती हैं पगडंडियाँ कितनी

अपनों के बिखर जाने से डर लगता है
भले ही दूर हों मगर हैं नजदीकियाँ कितनी

तगाफुल होते ही रहते हैं राहे इश्क में
बचे साबुत तो देखेंगे के हैं बरबादियाँ कितनी

साजिश में दुनिया की खुदा भी था शामिल
शिकायत कैसे करें , हैं उसकी मेहरबानियाँ कितनी