रविवार, 30 नवंबर 2014

ऐसे हमको दो पर मौला

सपने ओढूँ ,सपने बिछाऊँ
मगर हकीकत से जी न चुराऊँ
कुछ ऐसी करनी कर मौला 
मेरी ज़िन्दगी में भी ,कोई रँग तो भर मौला 

कितना खोया , कितना पाया 
लाख सँभाला ,कहाँ टिक पाया 
चला-चली का मेला है बेशक 
मेरे हिस्से में भी , कोई रहमत तो कर मौला 

किसी ने दस्तर-खान बिछाया 
किसी ने पँखों को सहलाया 
लाख ज़ुदा हों अपनी राहें 
कोई फ़लक तो हमको मिला दे 
ऐसे हमको दो पर मौला