किस काम का ये घर जो इसमें सज्जन मित्र न आएँ
खिल जाती हैं दीवारें जो आकर मित्र मुस्कुराएँ
कोई तो ठौर हो ऐसा कि धूप में भी छाँव हम पाएँ
लगा लें सीने से ऐसी दुनिया को ,जो कहीं आराम हम पाएँ
उग आते हैं चाँद सूरज तो इकट्ठे , हमारे मन तो जरा गुनगुनाएँ
नज़र उठती है यूँ तो अक्सर ,किसी आँख में वफ़ा का रँग तो पाएँ
ये दुनिया है अजब तिलिस्म , तेरी जादूगरी को हम भी कुछ आबाद कर जाएँ
आप आये हमारे घर , महका है समाँ ,समझ लो खुद ही , ये बेशक हम न कह पाएँ