रविवार, 4 अप्रैल 2010

टहलाते-टहलाते

गम टहल गया मुझको टहलाते-टहलाते
आजिज आ गया था मेरे समझौते से , राह भूल गया

बाद मुद्दत के हुई उनसे मुलाक़ात जो
ईद का चाँद उतरा है फलक से , राह भूल गया


आज फिर है इश्क की बाजी
गुरूर से कह दो पहरेदार ,राह भूल गया


ये कौन सा मुकाम है
निशान बोलते खड़े राहगीर ,राह भूल गया


शुक्रिया बहती हुई हवाओं का है
सुलगा के चिन्गारी तूफ़ान , राह भूल गया