शनिवार, 11 जुलाई 2009

तू वफ़ा कर ना कर

तू वफ़ा कर ना कर , मुझको तो वफ़ा की आदत है
ये और बात है कि जफा , रास आती कब है

कैसे चुन लूँ मैं काँटें, चमन की झोली से
गुलाब रह-रह के जब लुभाते हैं

घर से चलते हैं , साबुत आने की दुआ करते हैं
कैसे न माँगें खैर उनकी , जो दुआओं से हमें मिलते हैं

बिखरे -बिखरे से वजूद हों जब , उम्मीद की डोरी से सिले जाते हैं
वफ़ा के रँग जो सुबह न सहेजे तो , शाम होते ही गुरबत का गिला करते हैं

इश्क जादू की तरह सर चढ़ता है , बेवफाई अन्धे कुँए में ला पटकती है
ये है दुनिया का चलन , नन्हे जिगर को खिलौना समझती है