बुधवार, 14 जनवरी 2009

दिन ढलते ही

हाँ चुराई है मैंने रिदम नाजिम नकवी साहिब की एक ग़ज़ल ' सूरज हाथ से फिसल गया है , आज का दिन भी निकल गया है ' की | रिदम को शायद लय या ताल कहते हैं | और चुराई है गजल के पहले शेर की सोच | ग़ज़ल थोड़ी उदास बन पड़ी है | चाहती तो मैं भी हूँ ; सबेरे , पुरवाई और चहकने की बातें लिखूं | जो इस रंग से न गुजरा , उस रंग की अहमियत क्या जाने | तन्हाई में एक तड़प की गूँज होती है और हर मिलन में एक किलकारी होती है | खैर ग़ज़ल हाजिर है |

दिन ढलते ही , अहसास आया

आज भी सूरज गुजर गया है


मेरी तरह वो भी तन्हाँ है

आग है इतनी , पिघल गया है


बहके क़दमों , मय को कोसे

हसरत सारी निगल गया है


छूटा निवाला , वक़्त के हाथों

ख्वाब तो सारा बिखर गया है


दिन दिन कर ये ,इक युग बीता

जीवन हाथ से फिसल गया है


आस सँजोये , रोज नई सी

सफर आसमाँ के निकल गया है