गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

के है कोई सबेरा

है कोई तो पहलू अँधेरा
के जिसकी तह में है कोई तो चेहरा

चलना है आँख मूँद कर
वरना क्या वक़्त है कभी ठहरा

साये सा उभरता है वो
तन्हाँ देखते ही लगता है पहरा

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा

रौशनी करते हैं सायों पे बार बार
उघाड़ते हैं दिन-रात , के है कोई सबेरा