बुधवार, 21 जनवरी 2015

शहर-दर-शहर गुजरे

न बुलाओ हमें उस शहर में किताबों की तरह 
बयाँ हो जायेंगे हम जनाज़ों की तरह 

मुमकिन है खुशबुएँ जी उट्ठें 
किताबों में मिले सूखे गुलाबों की तरह 

जाने किस-किस के गले लग आयें 
हाथ से छूट गये ख़्वाबों की तरह 

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते 
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह 

डूब जायेंगे हम आँसुओं में देखो 
न उधेड़ो हमें परतों में प्याजों की तरह 

चलना पड़ता है सहर होने तलक 
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह 

मुट्ठी में पकड़ सका है भला कौन 
शहर-दर-शहर गुजरे मलालों की तरह 



सोमवार, 12 जनवरी 2015

सदियों को दो आराम


जाओगे कहाँ कोई सत्कर्म करने तुम 
चेहरे पे खिला दो किसी के तुम कोई मुस्कान 
लो हो गया भजन , लो हो गया भजन

घर में हों गर माँ-बाप दादा-दादी से बुजुर्ग 
तन-मन से करो सेवा ,अपना जनम सफल 
खिल जायेगा उनकी दुआओं का चमन 
लो हो गया भजन , लो हो गया भजन

बन कर के किसी पेड़ से , तुम सह लो सारी घाम 
पथिकों को दो छाया , सदियों को दो आराम 
हर ठूँठ पर फूल उगाने का हो जतन 
लो हो गया भजन , लो हो गया भजन

अपने लिये तो जीता है , हर कोई देख लो 
रुकता है भला कोई काम ,क्या किसी के बिन 
जीवन को भी उपयोगी बनाने की हो लगन 
लो हो गया भजन , लो हो गया भजन

अन्दर है तेरे भी कोई नन्हा सा बच्चा देख 
खिलखिलाना चाहता है खुल के ,जो तू देख 
सहज सरल रह कर , कुछ भी नहीं कठिन 
लो हो गया भजन , लो हो गया भजन