बुधवार, 21 जनवरी 2015

शहर-दर-शहर गुजरे

न बुलाओ हमें उस शहर में किताबों की तरह 
बयाँ हो जायेंगे हम जनाज़ों की तरह 

मुमकिन है खुशबुएँ जी उट्ठें 
किताबों में मिले सूखे गुलाबों की तरह 

जाने किस-किस के गले लग आयें 
हाथ से छूट गये ख़्वाबों की तरह 

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते 
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह 

डूब जायेंगे हम आँसुओं में देखो 
न उधेड़ो हमें परतों में प्याजों की तरह 

चलना पड़ता है सहर होने तलक 
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह 

मुट्ठी में पकड़ सका है भला कौन 
शहर-दर-शहर गुजरे मलालों की तरह