रविवार, 18 जुलाई 2010

साँस-साँस दुआ ही हो

कितनी ही टिप्पणियाँ और कितनी ही रचनाएं पढ़ी जाने के बाद नई रचनाओं का जन्म होता है । निचली पोस्ट ' सखी सी ही ' पर पहली टिप्पणी क्षमा जी की , उन्होंने लिखा कि किसी की लिखी हुई ये पंक्तियाँ याद आ गईं ।
हर रूह में इक गम छुपा लगे है मुझे
ज़िन्दगी तू इक बद-दुआ-सी लगे है मुझे

बस यहीं से जन्म हुआ इन पंक्तियों का

गम लाख हों सीने में मगर जिन्दगी बददुआ न हो
कडवे घूँट पीकर भी , साँस-साँस दुआ ही हो

बड़े जतनों से माली ने पाला हो जिसे
वो नाजुक सी बेलें फूलों की हमनवाँ ही हों

नीम के पेड़ पर चढ़ कर भूले अपना भी पता
रास आया तो नहीं खिली हुई मगर वफ़ा ही हो

हवाओं में बिखर या खुशबू से लिपट
दूर फ़िज़ाओं में बुलाता हुआ वो अपना पिया ही हो

सैलाब को मोड़ें तो सीँचे हर कोई
खेत-खलिहानों में उगती हुई फसल नगमा ही हो