शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

सौगात

फूलों में उलझे तो पड़ते नहीं हैं पाँव ज़मीं पर
काँटों में उलझे तो , ज़मीं बचती ही नहीं है क़दमों तले

ज़िन्दादिली तो हिन्दी में भी छलकती है
ये वो भाषा है जो ज़रुरी है सीखने के लिये

बहुत चाहा कि लिखूँ खुशियों पर , हैरानियों पर
बेबसी , वीरानियों की सौगात हैं मेरी नज्में

है प्रीत जितनी गहरी , है टीस भी उतनी ही गहरी
जो चलाता है फूलों पर , वही छोड़ जाता है काँटों के बिस्तर कने

ज़िन्दगी जलाती है तो राख के ढेर में बचाती इतना
कलम कागज़ थमा कर , दुनिया भर को सुनाती अफ़साने अपने

रविवार, 20 नवंबर 2011

वक्त ने हमको चुना

वक्त ने हमको चुना
चोट खाने के लिये

मंज़िलें और भी हैं
राह दिखाने के लिये

कौन जीता है भला
गम उठाने के लिये

वक़्त आड़ा ही सही
साथ बिताने के लिये

रफू करना कला है
जिन्दगी बचाने के लिये

उधड़ गए तो सिले
गले लगाने के लिये

हिला रहा है कोई
हमको जगाने के लिये

उठो , अहतराम कर लो
ताल मिलाने के लिये

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

अदब के शहर में ( लखनऊ के लिये )

बच्चों की किसी फ्रेंड ने फेसबुक पर लिखा ...मुस्कुराइए के ये लखनऊ है ...बस यहीं से इस रचना का जन्म हुआ ....


मुस्कुराइए के ये अदब है
अदब के शहर में अदब से पेश आइये

ये वो शहर है , अजनबी भी
लगता अपना सा ही , जान जाइए

मुहब्बतों में नहीं होता तेरा मेरा
सुकून दिल का पहचान जाइए

मन्जिल भी सबकी एक ही है
राहों का पता जान जाइए

वफ़ा की वादियों में चलना है
तहज़ीबे-इश्क पर परवान जाइए

गुलाबी रँगत है , तहज़ीबे गँगा-जमनी
झुका के सर कुर्बान जाइए

आए हैं सैर को नवाबों के शहर में
गुलाबों की तरह यूँ मुस्कुराइए

लगा के देखिये चेहरे पे दो इँच चौड़ी मुस्कान
जिगर में उतर कर , राह चलतों को अपना बनाइये


बुधवार, 2 नवंबर 2011

छाया का गिला है

अपने जैसा कोई
नहीं मिला है

सुख की कोई
आधार शिला है

हर कोई तन्हा
बहुत हिला है

किस काँधे पर
आराम मिला है

चिन्गारी है
आग सिला है

धूप है हर सू
छाया का गिला है

दिल दहला और
मौसम खिला है

सदियों से सुख-दुख
का सिलसिला है