रविवार, 8 मार्च 2009

इक बोल मेरी ओर

वो जो इक बोल मेरी ओर
तुमने उछाला मानों
लपक के पकड़ा मेरे दिल ने
कोई निवाला जानो

बरसा गया कोई बादल
ठण्डी फुहारें मानो
खिल गये फूल और कलियाँ
आईं बहारें जानो

बिना बोले ही तेरी नजरों ने
उछाले दिलासे मानो
झोली भर ली , छंट गये
सारे कुहासे जानो

शनिवार, 7 मार्च 2009

तूफाँ में नहीं हिलना

तूफाँ में नहीं हिलना
तूफाँ के साथ बहना
मुश्किल है मुश्किल में
लहरों को यूँ गिनना

डूबेगा ख़ुद ही तो
अर्जी है भँवर की ये
समँदर की मौजे हैं
किनारे छू के मुस्करायें

मचलें हैं लहरें तो
चंदा से मिलने को
बेशक उनकी भी तो
हर आस अधूरी है

कुछ भी छूटे या रूठे
मौजों के साथ बहना
तरंगें ही जीवन है
हर पल है यही कहना



गुरुवार, 5 मार्च 2009

दुःख गीत ग़ज़ल हो जाता है

दुःख गीत ग़ज़ल हो जाता है
गर दुःख के तराने पर थिरक सकें

.कड़वे शब्दों को देना दावत
इतने मर्जों से बढ़ कर और सजा क्या है
मर्जों की दवा हो जाती है
गर पग-पग घुँघरू झनक सकें

.दुःख इम्तिहान लेता है
मीठे बोलों से बढ़ कर और दुआ क्या है
दिल साजे ग़ज़ल हो जाता है
गर दुःख की तर्ज़ पर खनक सकें

सोमवार, 2 मार्च 2009

कब दूर किनारा है

उफनी हुई नदिया है
और पार उतरना है
बिगड़ी हुई किश्ती है
धारों पे चलानी है

किश्ती की मरम्मत कर
तूफानों से बचानी है
नदिया का रुख देखो
किनारे सँग ले चलती है

विपरीत बहावों में
सँग -सँग भी तो बहना है
रस्सी को ढीला कर
मौका गंवाना है

किश्ती का दम देखो
सागर से बहाना है
चंचल सी लहरों सँग
अठखेलियाँ करना है

उफनी हुई नदिया है
कब दूर किनारा है

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

फूलों की क्यारी में काँटे लाजिमी हैं


गुलाबी गुलाबी रँग अरमानों के
गुलाबी गुलाबी ख्वाब इन्सानों के

.फूलों की क्यारी में काँटे लाजिमी हैं
गुलाबों के सँग इनकी आशिकी पली है
उलझा दामन तेरा तो क्यों गम है करता
चेहरे पे तेरे वो नूर बन बिखरता

२. बिना किसी धागे के पिरोयेगा कैसे
साँसों की माला के मोती हों जैसे
गुदड़ी में लाल जो तू छुपाये है फिरता
गुलाबी सी रँगत का ख्वाब बन उतरता

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

बंद गलियों से आगे


बंद गलियों से आगे मुकाम होता है
तेरी हिम्मत का जवाब होता है

तंगहाली ही सब्रोइम्तिहान होता है
राह काँटों से सजी फूल पैगाम होता है

उठते क़दमों से चलने का गुमान होता है
तूफानों के बाद ही आराम होता है

दम लगा कर ही कोई दमदार होता है
तेरा दम भी तेरा मेहनताना होता है

बंद गलियों के आगे मुकाम होता है
तेरी हिम्मत का जवाब होता है

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

दिल सुलगता ही रहा


दिल सुलगता ही रहा
गीली लकड़ियों की तरह

आग लगती है नहीं
चिन्गारी भी मिटती नहीं

सँसार किस तरह दिखे
जब आँख खुलती है नहीं

धुँआ-धुँआ सा अन्दर है
धुँआ-धुँआ है हर कहीं

धुँए के पार दिखता नहीं
आसमाँ की तरफ़ तकते रहे

अपनी दीवारों में क़ैद हो
ख़ुद से गिला करते रहे

टकरा के लौटी है हवा
रास्ता कहाँ हमने रखा

फूलों की डाली कहाँ सजी
दिलवालों की दिवाली कहाँ मनी

हम गीली लकडियाँ लिए
अपना ज़हन सुलगाते रहे

अपनी तपिश से बेखबर
हादसों को जगह देते रहे

धुँए का रुख , आसमान को
हवा की जरूरत हर कहीं

हवाओं का हिस्सा बन जाते गर
जश्न होता हर घड़ी और हर कहीं