सोमवार, 18 जुलाई 2011

पंख दिए हैं मगर किस से कहें

तुम्हें इतना दिया है खुदा ने के तुम फख्र करो
मुझे भी दिया है मगर कुछ कमी सी है

पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है

लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है

आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है

हाल मौसम का ही अलापते रहे उम्र भर
इसी राग में ढली कोई ढपली सी है

खिजाओं में है कौन फलता फूलता
गमे यार है सीने में नमी सी है

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है

न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है

15 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है

आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है

वाह शानदार प्रस्तुति।

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

वाह, बहुत सुंदर..
न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है

Neeraj Kumar ने कहा…

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है...

वाह... क्या कहने...

विशाल सिंह (Vishaal Singh) ने कहा…

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है...
बहुत खूब शारदा जी.....आपके न चाहते हुए भी एक अच्छी ग़ज़ल बन गयी ये तो, क्या करेंगी कलम की हालत भी आप सी ही है.....!

कविता रावत ने कहा…

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है

न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है
...esi ka naam to jindagi hai..
bahut khoob!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत उम्दा ग़ज़ल प्रस्तुति!

kshama ने कहा…

पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है

लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है
Gazab kee rachana hai!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है

भावपूर्ण रचना है शारदा जी, बधाई.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत गज़ल ...

Sunil Kumar ने कहा…

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है
खुबसूरत शेर मुबारक हो.....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है

बहुत खूब ... आपके कहने का अंदाज़ जुदा है ... लाजवाब भाव हैं हर शेर में ..

नीरज गोस्वामी ने कहा…

वाह..लाजवाब कर दिया आपने...बधाई...

नीरज

मनोज कुमार ने कहा…

आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है
यह रचना अपने समय को पड़ताल करती है।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है
Behtreen ..... sunder rachna

रचना दीक्षित ने कहा…

"आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है"
लाजवाब अंदाज़,बेमिसाल बातें. बधाई...