अपने ही घर में बेगाने हुए
उम्र का कौन सा पड़ाव है , के अफ़साने हुए
अपने सावन तो गुजरे ज़माने हुए
मिलते रहते हैं ज़िन्दगी से अक्सर
वरना भूल जायेंगे मुस्कराना भी , के सयाने हुए
नहीं जानते के किसको क्या पढायें हम
ये दुनिया के सबक हिला गये हैं ,के अल्हदा ठिकाने हुए
हँस लेते हैं हम तो खुद पर ही
ग़मज़दा हैं या गम से ज़ुदा , हाय हम भी दीवाने हुए
बेटे के घर में माँ-बाप जब मेहमान लगने लगें
ये दस्तूर है ज़िन्दगी का , समझो के अब पुराने हुए
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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