आ बैठे निशाँ भी चेहरे पर
रग-रग में धूप समाई न
हम वादा कर के भूल गए
खुद से भी हुई समाई न
क्यूँ जाते हैं उन गलियों में
पीछे छूटीं , हुईं पराई न
ठहरा है सूरज सर पर ही
चन्दा की बारी आई न
सरकी न धूप , रुका मन्जर
आशा से हुई सगाई न
न कोई नींद , न कोई छलाँग
पुल सी कोई भरपाई न
दर्द है तो है गमे-तन्हाई भी
काँटें हैं ! क्या पैर में बिवाई न




16 टिप्पणियां:
दर्द है तो है गमे-तन्हाई भी
काँटें हैं ! क्या पैर में बिवाई न
ओह! बहुत दर्द भरा है……………सुन्दर भावाव्यक्ति।
bahut khub........:)
kya kahun, samajh nahi pa raha...bas ek pyari se rachna hai, yahi laga........
शारदा जी, जीवन के विभिन्न रंगों को आपने अपने काव्य में बखूबी उतार दिया। बधाई।
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ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेख,टोना-टोटका।
सांपों को दूध पिलाना पुण्य का काम है ?
vah ji vah.
kya baat hai.
न कोई नींद , न कोई छलाँग
पुल सी कोई भरपाई न
बहुत खूब.....
शारदा जी ,बहुत सुंदर !
ठहरा है सूरज सर पर ही
चन्दा की बारी आई न
वाह !
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
राजभाषा हिन्दी
विचार
गहरे भाव ..अच्छी प्रस्तुति
आज हमें ज़ाकिर अली रजनीश से सहमत मानियेगा !
शारदा जी,
सुन्दर रचना....
बहुत गहरी बातें जीवन के अनेक रंगों से सराबोर प्रस्तुति
bahut achcha likhi hain.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें
बेहद सुन्दर प्रस्तुति !
दर्द है तो है गमे-तन्हाई भी
काँटें हैं ! क्या पैर में बिवाई न
शारदा जी, बहुत अच्छा लिखा है....
सुंदर अभिव्यक्ति
आदरणीया शारदा अरोरा जी
सादर अभिवादन !
अच्छी रचना है ।
आ बैठे निशाँ भी चेहरे पर
रग-रग में धूप समाई न
बहुत ख़ूब !
हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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