बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

सत्रह-अठरह का इश्क ,

वैलेन्टाइन-डे की नजर

 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 

चाँद खिलौने की ज़िद 
डगर से बेखबर , नाजुक कन्धों पे रखना न बोझ रे 


 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 

कस्तूरी सी महक 
और टीसती कसक , दिल का कोना है बहुत उदास रे 


 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 

उम्र भर का है रोग 
दुनिया है बेरहम , आतिशे-गुल का है क्या काम रे 


 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 

कर खुद पर करम 
घर फूँक या दिल फूँक , तमाशे का है क्या अन्जाम रे 


 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 

तू ऊँचा उठे 
नापे धरती-गगन , क़दमों में बेड़ियों का है क्या काम रे 


 सत्रह-अठरह का इश्क , होता है नासमझ 
 रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद 






3 टिप्‍पणियां:

Rajendra kumar ने कहा…

सत्रह-अठरह का इश्क हो,ता है नासमझ
रूहानी सी प्यास , दीवानगी की वो हद
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
मेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है,आपका परामर्श चाहिए.
"ब्लॉग कलश"

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर रचना
क्या बात

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है की कच्ची उम्र का इश्क नासमझ होता है ... पर दिल पर भी तो बस नहीं होता है ...