तुम्हें इतना दिया है खुदा ने के तुम फख्र करो
मुझे भी दिया है मगर कुछ कमी सी है
पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है
लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है
आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है
हाल मौसम का ही अलापते रहे उम्र भर
इसी राग में ढली कोई ढपली सी है
खिजाओं में है कौन फलता फूलता
गमे यार है सीने में नमी सी है
आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है
न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है
ग़ज़ल 437 [11-G] : यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
2 दिन पहले