शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

दौड़े बहुत हो

आँतक-वाद की रोकथाम कैसे हो .....

बदले के बदले चलते रहेंगे 
खुदा बन के खुद को छलते रहेंगे 

थोक में बिछी लाशें , क्या सुख है पाया 
जो भी गया है ,लौट के न आया 
जख्मीं हैं सीने तो , मरहम लगाओ 
गूँजती सदाओं को , न तुम भुलाओ 
कब तक यूँ ख़्वाबों को मसलते रहेंगे 

कराहता है कोई , नजर न चुराओ 
सीने में उसको , न यूँ तुम दबाओ 
बहुत दिन हुए हैं , तुम्हें मुस्कराये 
दौड़े बहुत हो , नहीं पता पाये 
सहरा में कब तक भटकते रहेंगे 

बदले के बदले चलते रहेंगे 
खुदा बन के खुद को छलते रहेंगे 




10 टिप्‍पणियां:

  1. बदले के बदले चलते रहेंगे
    खुदा बन के खुद को छलते रहेंगे
    जीना इसी का नाम है1 अच्छी रचना1 मेरा ब्लाग भी देखें1

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  2. ममर्स्पर्शी , सुन्दर रचना

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (19-04-2015) को "अपनापन ही रिक्‍तता को भरता है" (चर्चा - 1950) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. ऐसे ही जीवन भी चलता रहेगा ... कभी बदले तो कभी प्यार ...

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  5. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  6. मनों भावों की बेहतरीन प्रस्तुति

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  7. कराहता है कोई , नजर न चुराओ
    सीने में उसको , न यूँ तुम दबाओ
    बहुत दिन हुए हैं , तुम्हें मुस्कराये
    दौड़े बहुत हो , नहीं पता पाये
    सहरा में कब तक भटकते रहेंगे

    खुद से खुद को छलने का नाम जीवन है।
    यथार्थपरक कविता ।

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  8. बढ़िया अभिव्यक्ति ! मंगलकामनाएं आपको

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं