रविवार, 28 जून 2009

दुनिया के मेले यूँ गए

दुनिया के मेले यूँ गए हमको तन्हाँ छोड़ कर
भीड़ के इस रेले में , जैसे कोई अपना न था

तन्हाई ले है आई ये हमें किस मोड़ पर
खुली आँखों की इस नीँद में , अब कोई सपना न था

चाँद माथे रख के टिकुली आ गया दहलीज पर
उसके सिवा अब रात का , अपना कोई खुदा न था

या खुदा इम्तिहाँ न ले , तू मेरा इस मोड़ पर
सिलसिला ये रात दिन का , जख्मों से जुदा न था

9 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

चाँद माथे रख के टिकुली आ गया दहलीज पर
बहुत खूब

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"दुनिया के मेले यूँ गए हमको तन्हाँ छोड़ कर
भीड़ के इस रेले में , जैसे कोई अपना न था"
सुन्दर अभिव्यक्ति।
आभार।

Unknown ने कहा…

चाँद माथे रख के टिकुली आ गया दहलीज पर
उसके सिवा अब रात का , अपना कोई खुदा न था
waah
waah
har she'r umda lekin ye toh seedha kaleje me utar gaya....

barmbar badhaai !

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

Vinay ने कहा…

बहुत ही बढ़िय, भावों को एक धागे में समेट लिया है

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चाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलें

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

चाँद माथे रख के टिकुली आ गया दहलीज पर
उसके सिवा अब रात का , अपना कोई खुदा न था


bahut pyara likha hai, badhai.

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

या खुदा इम्तिहाँ न ले , तू मेरा इस मोड़ पर
सिलसिला ये रात दिन का , जख्मों से जुदा न था
बहुत ही बढ़िय, बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

Kuldeep Kumar Mishra ने कहा…

बहुत अच्छा है.
हम इस विषय में ज्यादा तो नहीं जानते लेकिन जितना भी जानते है,
काफी अच्छा लिखा है. आपका ब्लॉग पढ़ कर मान प्रसन्न हो गया
धन्याद
आप ऐसे ही लिखती रहे और हम आपकी रचनाओं को यूँ ही पढ़ते रहें...................

निर्मला कपिला ने कहा…

चाँद माथे रख के टिकुली आ गया दहलीज पर
उसके सिवा अब रात का , अपना कोई खुदा न था
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई