बुधवार, 17 सितंबर 2014

गैर की तरह

उन्हें ये है ऐतराज़ के हम खुश रहते क्यूँ हैं 
घड़ी-घड़ी रह-रह के यूँ मुस्कराते क्यूँ हैं 

बड़ी मुश्किल से आये हैं इस मुकाम पर 
फिर पुरानी राह हमें वो दिखलाते क्यूँ हैं 

अपने सीने में भी धड़कता है दिल 
हो जा ज़िन्दगी से महरूम बतलाते क्यूँ हैं 

हमें मालूम है दुनिया का चलन 
गैर की तरह वो भी सितम ढाते क्यूँ हैं 

उन्हें मालूम नहीं ,वही मुस्कराते हैं सीने में 
मेरे चेहरे का रँग वही उड़ाते क्यूँ हैं 

5 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

वाह ... लाजवाब शेर ..

Rajendra kumar ने कहा…

आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (19.09.2014) को "अपना -पराया" (चर्चा अंक-1741)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

उम्दा ग़ज़ल।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

बढ़िया ग़ज़ल!

Manoj Kumar ने कहा…

बहुत सुन्दर !
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर
आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ
मेरा आपसे अनुरोध है की और
फ़ॉलो करके अपने सुझाव दे