बुधवार, 7 अक्टूबर 2015

सफ़्हा-दर -सफ़्हा

ऐसे उठ आये तेरी गली से हम
जैसे धूल झाड़ के कोई उठ जाता है

यादों की गलियों में थे अँधेरे बहुत
वक़्त भी आँख मिलाते हुए शर्माता है

वक़्ते-रुख्सत न आये दोस्त भी
गिला दुनिया से भला क्या रह जाता है

लाये थे जो निशानियाँ वक़्ते-सफर की
रह-रह कर माज़ी उन्हें सुलगाता है 

अब मेरे हाथ लग गया अलादीन का चराग 
आतिशे-ग़म से भी अँधेरा छँट जाता है 

तय होता है लेखनी का सफ़र सफ़्हा-दर -सफ़्हा 
मील का हर पत्थर हमें समझाता है

5 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर



चर्चा - 2123
में दिया जाएगा
धन्यवाद

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

badhiya gazal

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर गजल.
नई पोस्ट : मर्सिया गाने लगे हैं

Unknown ने कहा…

badhiya hai
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संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुंदर गजल.