शनिवार, 11 जुलाई 2009

तू वफ़ा कर ना कर

तू वफ़ा कर ना कर , मुझको तो वफ़ा की आदत है
ये और बात है कि जफा , रास आती कब है

कैसे चुन लूँ मैं काँटें, चमन की झोली से
गुलाब रह-रह के जब लुभाते हैं

घर से चलते हैं , साबुत आने की दुआ करते हैं
कैसे न माँगें खैर उनकी , जो दुआओं से हमें मिलते हैं

बिखरे -बिखरे से वजूद हों जब , उम्मीद की डोरी से सिले जाते हैं
वफ़ा के रँग जो सुबह न सहेजे तो , शाम होते ही गुरबत का गिला करते हैं

इश्क जादू की तरह सर चढ़ता है , बेवफाई अन्धे कुँए में ला पटकती है
ये है दुनिया का चलन , नन्हे जिगर को खिलौना समझती है







11 टिप्‍पणियां:

लता 'हया' ने कहा…

बहुत सकारात्मक सोच है ...जोहमेशा कायम रहे.
हया

श्यामल सुमन ने कहा…

इश्क का जादू चढ़ा सर कौन फिर समझायेगा।
बेवफाई में खिलौना बन के ही रह जायेगा।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

निर्मला कपिला ने कहा…

बिखरे -बिखरे से वजूद हों जब , उम्मीद की डोरी से सिले जाते हैं
वफ़ा के रँग जो सुबह न सहेजे तो , शाम होते ही गुरबत का गिला करते हैं
बहुत सुन्दर रचना है बधाई

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है बधाई

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शारदा जी!
इसे गीत या गज़ल तो कब नही सकता।
लेकिन यह गद्य गीत है और बहुत अच्छा है।
बधाई।

mehek ने कहा…

घर से चलते हैं , साबुत आने की दुआ करते हैं
कैसे न माँगें खैर उनकी , जो दुआओं से हमें मिलते हैं

waah sharda ji bahut hi sunder baat keh di,bahutbadhai.

Udan Tashtari ने कहा…

घर से चलते हैं , साबुत आने की दुआ करते हैं
कैसे न माँगें खैर उनकी , जो दुआओं से हमें मिलते हैं

-वाह!! बहुत खूब!!!!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

"घर से चलते हैं , साबुत आने की दुआ करते हैं
कैसे न माँगें खैर उनकी , जो दुआओं से हमें मिलते हैं"
ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगी....
इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...

Neeraj Kumar ने कहा…

इश्क जादू की तरह सर चढ़ता है , बेवफाई अन्धे कुँए में ला पटकती है
ये है दुनिया का चलन , नन्हे जिगर को खिलौना समझती

a unique poem...