रविवार, 25 अप्रैल 2010

आँखों से ओझल नहीं होता

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता

तन्हाई भी करती है शिकायत
कि इक पल भी वो आँखों से ओझल नहीं होता
खबर तो उसको भी है इतना भी वो बेखबर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

13 टिप्‍पणियां:

neelima garg ने कहा…

interesting.....

Apanatva ने कहा…

ati sunder....

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर रचना।

Dr. C S Changeriya ने कहा…

sundar rachna badhai is ke liye aap ko

kshama ने कहा…

Aap khamosh kar deti hain..!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Vaise to vo mahfil bhi mahfil nahi jismen dilbar nahi ... bahut khoob likha hai ...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता
....बहुत ही खूबसूरत...दिल को छूने वाली रचना.

दिलीप ने कहा…

bahut khoob...

Ra ने कहा…

मेरी पसंद की रचना ....वाह ! वाकई सुन्दर

Ra ने कहा…

शानदार - सुन्दर प्रस्तुति.....
http://athaah.blogspot.com/

kumar zahid ने कहा…

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
behtar khyal

आदेश कुमार पंकज ने कहा…

बहुत सुंदर कविता है