रविवार, 25 अप्रैल 2010

आँखों से ओझल नहीं होता

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता

तन्हाई भी करती है शिकायत
कि इक पल भी वो आँखों से ओझल नहीं होता
खबर तो उसको भी है इतना भी वो बेखबर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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  2. Vaise to vo mahfil bhi mahfil nahi jismen dilbar nahi ... bahut khoob likha hai ...

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  3. वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
    हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता
    ....बहुत ही खूबसूरत...दिल को छूने वाली रचना.

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  4. मेरी पसंद की रचना ....वाह ! वाकई सुन्दर

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  5. शानदार - सुन्दर प्रस्तुति.....
    http://athaah.blogspot.com/

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  6. दिन हो के रात हो भले
    किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
    हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
    behtar khyal

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं