रविवार, 4 नवंबर 2012

कहाँ नहीं है खुदा

तुझ में खुदा है , मुझ में खुदा है 
कहाँ नहीं है खुदा , ये बता 
पर मेरा मन क्यूँ ख़फा है 
ख़फा है , ख़फा है , ये बता 

बरसता सावन , उगता सूरज , ढलती शामें 
वो सारी दुनिया का मालिक 
मेरी हस्ती उस से जुदा है 
जुदा है , जुदा है , ये बता 

गहरी खाई , टूटा दिल है , निपट अकेला 
उजला देखूं , रब है , रब है 
झूम के गाऊँ , ये भी बदा है 
बदा है , बदा है , ये बता 


तुझ में खुदा है , मुझ में खुदा है 
कहाँ नहीं है खुदा , ये बता 
पर मेरा मन क्यूँ ख़फा है 
ख़फा है , ख़फा है , ये बता 



4 टिप्‍पणियां:

  1. क्यूंकि शायद खुदा हामरे इतने करीबा है कि हम सदा ही उसे खफ़ा ही रहते हैं इसलिए मन भी ज़्यादातर खुद से खफ़ा-खफ़ा ही रहता है। :))
    समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  2. ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई,

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं